बिहार की राजनीति में इस समय एक बड़ा सवाल खड़ा हो गया है—क्या राज्य के 61 लाख से अधिक मतदाता वोट डालने के अधिकार से वंचित रह सकते हैं? चुनाव आयोग द्वारा हाल ही में जारी किए गए ड्राफ्ट मतदाता सूची के आंकड़ों के अनुसार, ऐसा संभव हो सकता है। यह रिपोर्ट Summary Revision of Electoral Rolls (SIR) प्रक्रिया के समापन के एक दिन पहले सामने आई है। इसमें यह संकेत दिया गया है कि पिछले रजिस्ट्रेशन आंकड़ों की तुलना में लाखों नाम अब वोटर लिस्ट में नहीं दिख रहे हैं।
इस खबर ने न केवल आम नागरिकों को चिंतित किया है बल्कि राजनीतिक हलकों में भी हलचल मचा दी है। SIR प्रक्रिया का उद्देश्य पारदर्शिता और निष्पक्षता को बढ़ाना था, लेकिन इतने बड़े आंकड़े सामने आने के बाद लोगों के मन में कई सवाल उठ खड़े हुए हैं।
SIR क्या है और इसकी प्रक्रिया कैसी रही
SIR यानी Summary Revision of Electoral Rolls एक ऐसा नियमित अभ्यास है जिसमें निर्वाचन आयोग राज्य की मतदाता सूची को अद्यतन करता है। इसमें हर नागरिक को यह अवसर दिया जाता है कि वह अपने नाम की पुष्टि करे, नया नाम जुड़वाए या किसी गड़बड़ी की शिकायत करे।
इस प्रक्रिया के तहत बूथ लेवल अधिकारी (BLO) घर-घर जाकर मतदाताओं की जानकारी एकत्र करते हैं और उसे डिजिटल पोर्टल पर अपलोड करते हैं। बिहार में इस बार SIR की प्रक्रिया नवंबर के महीने में शुरू हुई और BLOs ने रिपोर्ट किया कि लगभग 99.58% मतदाताओं का भौतिक सत्यापन सफलतापूर्वक किया गया।
इसके बावजूद यह सवाल बना हुआ है कि जब सत्यापन इतना व्यापक हुआ, तो फिर आखिर ये 61 लाख नाम लिस्ट से कैसे गायब हो सकते हैं?
🟥 During Bihar’s Special Intensive Revision (SIR) of electoral rolls, the Election Commission reported 1 lakh voters as “untraceable”, while over 52 lakh electors were deemed ineligible due to death, migration, or duplicate registrations.
The draft list will release on August… pic.twitter.com/pcRmctHpJe
— BharatPaksh (@PakshForBharat) July 24, 2025
आंकड़ों में विसंगति: 61 लाख का मामला
ECI द्वारा जारी किए गए हालिया डेटा के अनुसार, बिहार की कुल मतदाता संख्या लगभग 7.68 करोड़ है। लेकिन जब इन आंकड़ों की तुलना वर्ष 2019 की अंतिम मतदाता सूची से की गई, तो यह पाया गया कि करीब 61 लाख नाम कम हो गए हैं।
2019 में बिहार में कुल 8.29 करोड़ मतदाता थे। इस बार के ड्राफ्ट रोल में यह आंकड़ा घटकर 7.68 करोड़ रह गया है। अंतर लगभग 7.4% का है, जो कि एक सामान्य ‘डुप्लीकेट हटाने’ की प्रक्रिया से कहीं अधिक है।
यह भी ध्यान देने योग्य है कि आयोग का कहना है कि यह अंतर पूरी तरह से तकनीकी प्रक्रिया और डुप्लीकेट एंट्रीज़ को हटाने के कारण है, लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि यह विषय और गहराई से जांचने योग्य है।
जनता और राजनीतिक दलों की चिंता
इस विषय ने राजनीतिक गलियारों में भी तनाव उत्पन्न कर दिया है। कई विपक्षी दलों ने इसे लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन बताया है। उनका कहना है कि जब 99% लोगों का सत्यापन हो चुका था, तब इतने बड़े स्तर पर डिलीशन कैसे संभव हुआ?
कुछ नेताओं ने यहाँ तक सुझाव दिया है कि अगर इस मुद्दे को सुलझाया नहीं गया, तो वे आगामी चुनावों का बहिष्कार भी कर सकते हैं। हालांकि, ये केवल बयानबाज़ी है या असल में कोई निर्णय—यह तो समय ही बताएगा।
इन दलों का मानना है कि यह डेटा पारदर्शिता से दूर और भरोसे के योग्य नहीं है। उनका आरोप है कि राज्य के कमजोर वर्गों—जैसे दलित, अल्पसंख्यक और ग्रामीण मतदाताओं—के नाम जानबूझकर हटाए जा रहे हैं।
हालांकि इस तरह के आरोपों की कोई आधिकारिक पुष्टि नहीं हुई है, लेकिन जनता में अविश्वास की भावना ज़रूर देखी जा रही है।
चुनाव आयोग की सफाई
चुनाव आयोग ने इस पूरे मामले में स्पष्ट रूप से कहा है कि मतदाता सूची का अद्यतन एक स्वचालित और निष्पक्ष प्रक्रिया है। BLO द्वारा फील्ड वेरिफिकेशन के बाद डेटा डिजिटल रूप से अपडेट किया गया है।
आयोग का यह भी कहना है कि जिन लोगों के नाम हटे हैं, उनके पास फॉर्म भरकर या ऑनलाइन माध्यम से पुनः नाम जुड़वाने का अवसर उपलब्ध है। उन्होंने नागरिकों से अपील की है कि वे अपने मतदाता विवरण की पुष्टि स्वयं करें और किसी भी गड़बड़ी की सूचना संबंधित अधिकारी को दें।
लोकतंत्र पर असर और नागरिक अधिकार
अगर 61 लाख लोग वोटर लिस्ट से वंचित हो जाते हैं तो इसका सीधा असर बिहार के लोकतांत्रिक तंत्र पर पड़ सकता है। खासकर उन इलाकों में जहां पहले से ही मतदान का प्रतिशत कम होता है, वहाँ यह संख्या निर्णायक भूमिका निभा सकती है।
यह विषय न केवल प्रशासनिक त्रुटि है, बल्कि यह नागरिक अधिकारों के हनन की ओर भी इशारा करता है। एक आम मतदाता को यह अधिकार है कि वह अपने मत का प्रयोग करे और उसके नाम को सूची से हटाना बिना उचित सूचना के एक गंभीर मसला है।
इसी तरह की सजगता और पारदर्शिता की ज़रूरत हमें सुरक्षा व्यवस्था में भी है, जैसा कि हाल ही में ATS द्वारा गुजरात, दिल्ली और यूपी में आतंकी मॉड्यूल के खुलासे से स्पष्ट हुआ
निष्कर्ष
बिहार के मतदाता सूची से जुड़ा यह मुद्दा फिलहाल चर्चा का विषय बना हुआ है। अगर आयोग ने यह स्पष्ट नहीं किया कि हटाए गए नाम किन तकनीकी कारणों से निकाले गए हैं, तो इसका असर न केवल राज्य में बल्कि देशभर की SIR प्रक्रिया पर पड़ेगा।
भविष्य में पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए आयोग को डेटा पब्लिक डोमेन में साझा करना चाहिए, जिससे लोग स्वयं जांच कर सकें। साथ ही तकनीकी माध्यमों का इस्तेमाल करते हुए एक सरल और प्रभावी प्रक्रिया विकसित करनी होगी जिससे हर नागरिक अपने वोटर स्टेटस को रियल टाइम में देख सके।
जनता की राय
क्या आपने अपना नाम वोटर लिस्ट में जांचा है?
अगर नहीं, तो तुरंत सुनिश्चित करें कि आपका नाम लिस्ट में मौजूद है या नहीं—क्योंकि लोकतंत्र में आपकी भागीदारी सबसे महत्वपूर्ण है। नीचे कमेंट कर बताएं कि इस पूरी प्रक्रिया को लेकर आपका क्या अनुभव रहा।