हर साल सर्दियों से पहले पंजाब की हवा में उठता धुआं पूरे उत्तर भारत की सांसें थाम लेता है। यह धुआं किसी फैक्ट्री से नहीं बल्कि खेतों की पराली से उठता है — वह पराली जो किसानों के लिए बोझ बन चुकी है। सरकार वर्षों से इसके समाधान के प्रयास कर रही है, लेकिन सवाल यह है कि क्या यह समस्या वास्तव में अब घट रही है या सिर्फ आंकड़ों में सुधार दिख रहा है?
2025 में एक बार फिर पराली जलाने पर निगाहें गड़ी हैं। ताज़ा आंकड़ों के मुताबिक, घटनाओं में कुछ कमी दिखती है, लेकिन प्रदूषण का खतरा अब भी वातावरण में जिंदा है। इस रिपोर्ट में हम देखेंगे कि पंजाब में पराली जलाने की संख्या में क्या बदलाव आया है, किन कारणों की वजह से यह जारी है, और सरकार व किसान दोनों की स्थिति वास्तव में क्या है।
पंजाब में पराली जलाने की हालिया स्थिति (2025)
पंजाब में अक्टूबर 2025 तक कुल सैकड़ों खेतों में पराली जलाने की घटनाएँ दर्ज की गईं। राज्य के विभिन्न ज़िलों — तਰਨतारण, अमृतसर, फिरोजपुर और पटियाला — में कृषि अवशेष जलाने की गतिविधियाँ फिर से दिखाई दीं।
दिलचस्प बात यह है कि हाल ही में पंजाब के सिरहिंद रेलवे स्टेशन पर हुई Punjab Garib Rath Express Fire Accident Sirhind Railway Station जैसी घटनाओं ने आग से जुड़ी लापरवाही पर भी सवाल खड़े किए हैं। ऐसे हादसे यह याद दिलाते हैं कि चाहे खेतों में धुआं हो या रेल में आग – सुरक्षा और जागरूकता की कमी दोनों जगह विनाश का कारण बनती है।
कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि पिछले कुछ वर्षों की तुलना में आगजनी की घटनाएँ कम हैं, जिसका कारण इस वर्ष की बाढ़ और देर से कटाई भी है। फिर भी, पराली जलाने से उठता धुआं वातावरण में प्रदूषण की एक नई परत छोड़ रहा है, जिसका असर पूरे उत्तर भारत की हवा में महसूस किया जा सकता है।
#BreakingNews | Punjab witnesses a major breakthrough in tackling stubble burning as they fall sharply by 7.2%@Srish__T shares more details @GrihaAtul | #Punjab #StubbleBurning #AirQuality pic.twitter.com/5JFYTUYULv
— News18 (@CNNnews18) October 22, 2025
क्या घट रही हैं घटनाएं? आंकड़ों का विश्लेषण
पिछले पांच वर्षों के रिकार्ड देखें तो 2020 में कुल घटनाएं दस हज़ार से अधिक दर्ज की गई थीं, जबकि 2025 में यह कई गुना घटकर लगभग पाँच सौ के आसपास दिखाई देती हैं। आंकड़े कमी का संकेत देते हैं, मगर इसका अर्थ यह नहीं कि पराली जलाना पूरी तरह खत्म हो गया है।
विशेषज्ञों का कहना है कि पहले किसानों द्वारा खुले में आग लगाने के मामले दर्ज नहीं होते थे या डेटा अधूरा रहता था, मगर अब निगरानी सैटेलाइट और स्थानीय इकाइयों द्वारा बढ़ी है। इसीलिए घटनाओं की सटीक संख्या सामने आने लगी है।
कुछ रिपोर्टें यह भी बताती हैं कि आंशिक सुधार तो हुआ है लेकिन कुछ क्षेत्रों में किसानों के बीच पराली जलाने की प्रवृत्ति अब भी बनी हुई है। इसलिए गिरावट के आंकड़ों को “पूर्ण सफलता” कहना सही नहीं माना जा सकता।
किसान क्यों जलाते हैं पराली
पंजाब के किसानों की स्थिति समझना जरूरी है। धान की कटाई और गेहूं की बुवाई के बीच केवल तीन सप्ताह का समय मिलता है। कंबाइन हार्वेस्टर द्वारा फसल कटाई के बाद खेतों में बची पराली को हटाना एक महंगा और समय लेने वाला काम है।
यदि किसान मशीनों (जैसे हैप्पी सीडर या सुपर स्ट्रॉ मैनेजमेंट सिस्टम) का उपयोग करना चाहें तो उन्हें लागत बढ़ानी पड़ती है। छोटे और सीमांत किसान यह खर्च नहीं उठा पाते, इसलिए पराली को आग लगाना ही उन्हें सबसे सस्ता और तेज़ विकल्प लगता है।
कई किसानों का कहना है कि यदि सरकार उन्हें सीधे आर्थिक सहायता दे या मशीनरी मुफ्त प्रदान करे तो वे पराली जलाने से परहेज़ कर सकते हैं। लेकिन अब तक यह समर्थन हर ज़िले तक पहुँचा नहीं है।
सरकारी रणनीतियाँ और कदम
राज्य सरकार की ओर से पराली जलाने पर जुर्माना, रेड एंट्री और मुआवज़ा प्रणाली लागू की गई है। नियमों के अनुसार, यदि कोई किसान पराली जलाते पकड़ा जाता है तो उस पर जुर्माना लगाया जाता है और उसे भविष्य में खेती संबंधी योजनाओं से वंचित किया जा सकता है।
साथ ही, किसानों को आधुनिक उपकरण जैसे हैप्पी सीडर और रोटावेटर पर सब्सिडी देने की भी घोषणा हुई है। इन उपायों से सुधार दिखा भी है, पर ग्राउंड लेवल पर इन योजनाओं का पूरा लाभ सभी तक नहीं पहुँचा है।
सरकार का यह भी दावा है कि “क्लीन पंजाब मिशन” के तहत ग्रामीण स्तर पर जागरूकता अभियानों की शुरुआत हो चुकी है। फिर भी, व्यावहारिक कठिनाइयों की वजह से इसमें पूरी सफलता अभी तक नहीं मिल सकी है।
डेटा और वास्तविक स्थिति
हाल के महीनों में कुछ तकनीकी कारणों से उपग्रह डेटा में अस्थायी रुकावट आई, जिसके चलते घटनाओं की सही संख्या प्राप्त करना मुश्किल रहा। लेकिन भूमि स्तर पर पर्यावरण विभाग के आंकड़े बताते हैं कि खेतों में आग की घटनाएं हर दिन नई लहर लेती हैं।
कुछ कृषि विशेषज्ञों के मुताबिक, उन्हें खेतों से धुआं कम दिख रहा है, पर हवा की गुणवत्ता पर इसका असर अब भी साफ तौर पर महसूस किया जा सकता है। खासतौर पर उत्तर भारत के वायु निगरानी केंद्रों में PM2.5 के स्तर में तेज़ी देखी गई है।
अब देखना यह होगा कि नवंबर के मध्य तक जब फसल कटाई अपने चरम पर होगी, तब सरकार कैसे इस चुनौती से निपटती है।
दिल्ली-NCR की हवा पर असर
दिल्ली की हवा पराली जलाने के धुएं से तुरंत प्रभावित होती है। उत्तर-पश्चिमी हवाएं जब पंजाब से दिल्ली की ओर चलती हैं, तो यहां प्रदूषण का स्तर “गंभीर” श्रेणी तक पहुंच जाता है।
वायु गुणवत्ता सूचकांक (AQI) में तेजी से गिरावट दर्ज हो चुकी है। प्रशासन ने पहले ही ‘ग्रैप’ (GRAP) योजना लागू कर दी है, जिसमें स्कूलों व उद्योगों को बंद करने तक के निर्देश शामिल हैं।
किसानों की आवाज़
कई किसान मानते हैं कि “कचरा जलाना हमारी मजबूरी है, न कि पसंद।” कुछ बताते हैं कि खेतों की नमी ज्यादा होने पर आधुनिक उपकरण काम नहीं करते, जबकि मजदूरी और ईंधन की लागत बहुत बढ़ गई है।
उनका मानना है कि अगर सरकार फसल विविधीकरण को बढ़ावा दे और धान के उत्पादन की निर्भरता घटाए, तो पराली की समस्या खुद-ब-खुद कम हो सकती है।
निष्कर्ष
पंजाब की पराली जलाने की समस्या में सुधार तो दिखता है, लेकिन इसे समाप्त कहना जल्दबाज़ी होगी। आंकड़े घटे हैं, पर धुएं का असर अब भी बना हुआ है।
समाधान के लिए सरकार को तकनीकी विकल्पों के साथ-साथ किसानों को आर्थिक रूप से सक्षम बनाना होगा। तभी खेतों की आग पूरी तरह बुझ सकेगी और हवा में सच्चे अर्थों में ‘सांस’ लौट पाएगी।




















