लोकसभा में हाल ही में पेश किया गया संविधान संशोधन बिल देश की राजनीति में गहरी हलचल पैदा कर रहा है। इस बिल में प्रावधान है कि अगर प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या कोई मंत्री गंभीर अपराधों में गिरफ्तार होकर 30 दिन से अधिक समय तक न्यायिक हिरासत में रहता है, तो उसे उसके पद से हटा दिया जाएगा।
बिल को फिलहाल संसद की संयुक्त संसदीय समिति (JPC) के पास भेजा गया है ताकि वहां इस पर गहन विचार हो सके। यही कारण है कि इसे भारतीय राजनीति का एक अहम मोड़ माना जा रहा है।
बिल की मुख्य विशेषताएँ
इस संविधान संशोधन बिल में कुछ बेहद महत्वपूर्ण प्रावधान शामिल किए गए हैं:
- अगर प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या मंत्री 30 दिनों से अधिक हिरासत में रहते हैं तो उन्हें पद से हटाया जा सकता है।
- यह प्रावधान केवल गंभीर अपराधों से जुड़े मामलों में लागू होगा।
- पद से हटाने का निर्णय राष्ट्रपति या राज्यपाल के अधिकार क्षेत्र में होगा।
- बिल का उद्देश्य “शुचिता और जवाबदेही” सुनिश्चित करना बताया गया है।
लोकसभा में पेशी और JPC को रेफ़र करने का फैसला
जब यह बिल लोकसभा में पेश हुआ, तब सत्तारूढ़ दल ने इसे भ्रष्टाचार और अपराध के खिलाफ सख्त कदम बताया। उनका कहना है कि इस कानून से लोकतांत्रिक संस्थाओं में जनता का भरोसा बढ़ेगा।
दूसरी ओर, विपक्ष ने इसे सत्ता के केंद्रीकरण का प्रयास बताया। उनका तर्क है कि इससे संघीय ढाँचे और लोकतंत्र की बुनियादी संरचना पर असर पड़ सकता है। इसी बहस के बीच स्पीकर ने यह बिल संयुक्त संसदीय समिति को भेज दिया ताकि सभी पहलुओं पर विस्तार से चर्चा हो सके।
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— Times Algebra (@TimesAlgebraIND) August 20, 2025
राजनीतिक असर और संभावित परिणाम
यह बिल अगर कानून बनता है तो इसका सबसे बड़ा असर राज्यों की राजनीति पर पड़ सकता है। कई बार मुख्यमंत्री और मंत्री किसी केस में आरोपी बनाए जाते हैं और लंबी कानूनी प्रक्रिया के चलते महीनों हिरासत में रहते हैं।
- विपक्ष का कहना है कि इससे राजनीतिक बदले की कार्रवाई बढ़ सकती है।
- सत्तारूढ़ दल का दावा है कि इससे “ईमानदार नेताओं की छवि मजबूत होगी और भ्रष्टाचारियों की सियासत खत्म होगी।”
इस संदर्भ में यह याद दिलाना जरूरी है कि हाल ही में विपक्षी पार्टियों ने जस्टिस सुधर्शन रेड्डी को उप-राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार बनाया था, जिनकी ईमानदार छवि और भ्रष्टाचार विरोधी रुख पर चर्चा रही। इस विषय पर हमारी पिछली विस्तृत रिपोर्ट भी पढ़ सकते हैं: 👉 कैसे जस्टिस सुधर्शन रेड्डी ने यूपीए सरकार को घोटाले के आरोपों पर घेरा था
कानूनी और विशेषज्ञों की राय
कई संविधान विशेषज्ञों का मानना है कि यह बिल संविधान के मूल ढाँचे (basic structure doctrine) से जुड़ा सवाल खड़ा कर सकता है।
- कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि कार्यपालिका की स्वतंत्रता इस तरह के संशोधन से प्रभावित हो सकती है।
- वहीं, अन्य का मानना है कि लोकतंत्र में जवाबदेही और नैतिकता सुनिश्चित करने के लिए ऐसे प्रावधान आवश्यक हैं।
विशेषज्ञ Debby Jain का तर्क है कि यह बिल न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच नई बहस को जन्म देगा, और संभव है कि यह मामला आगे चलकर सुप्रीम कोर्ट की समीक्षा में भी आए।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य : पहले भी हुए हैं संशोधन
भारतीय संविधान में इससे पहले भी कई अहम संशोधन किए जा चुके हैं:
- 52वां संशोधन (1985) – दलबदल विरोधी कानून
- 61वां संशोधन (1989) – मतदान की आयु घटाकर 18 वर्ष करना
- 91वां संशोधन (2003) – मंत्रियों की संख्या पर सीमा तय करना
लेकिन इस नए बिल की खासियत यह है कि यह सीधे प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के पद से जुड़ा है, जो इसे पहले के संशोधनों से अलग बनाता है।
जनता और मीडिया की प्रतिक्रिया
इस बिल ने आम जनता और मीडिया में भी गहरी चर्चा छेड़ दी है।
- सोशल मीडिया पर कई लोग इसे “भ्रष्टाचार के खिलाफ मास्टरस्ट्रोक” बता रहे हैं।
- वहीं कुछ नागरिक इसे “लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमला” कह रहे हैं।
- टीवी डिबेट्स और अखबारों में इस विषय पर रोजाना नए तर्क सामने आ रहे हैं।
निष्कर्ष
अब जबकि बिल को संयुक्त संसदीय समिति के पास भेज दिया गया है, आने वाले समय में यह देखना दिलचस्प होगा कि समिति अपनी रिपोर्ट में क्या सुझाव देती है।
- अगर बिल पास हो जाता है तो यह भारतीय राजनीति में सत्ता और जवाबदेही का नया संतुलन तय करेगा।
- अगर इसे रोक दिया गया या संशोधित किया गया, तो भी यह आने वाले चुनावों में वोटरों की बहस का बड़ा मुद्दा रहेगा।
👉 अब सवाल यह है कि क्या यह बिल सच में भ्रष्टाचार पर नकेल साबित होगा या फिर केवल राजनीतिक हथियार बनकर रह जाएगा?
✍️ पाठकों के लिए प्रश्न
क्या आपको लगता है कि यह बिल लोकतंत्र को मजबूत करेगा या फिर राजनीतिक असंतुलन पैदा करेगा?
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