दिल्ली में हाल ही में हुए एक उच्च-स्तरीय पत्रकार सम्मेलन ने मीडिया जगत में नई बहस छेड़ दी है। अफगान विदेश मंत्री के संवाद कार्यक्रम में किसी भी महिला पत्रकार को आमंत्रित न करना अचानक सुर्खियों में आ गया। यह घटना न सिर्फ पत्रकारिता के मूल्यों पर सवाल उठाती है, बल्कि अफगानिस्तान के महिला अधिकारों पर तालिबान की सोच का स्पष्ट संकेत भी देती है। जैसे ही मीडिया और राजनीतिक हलकों में यह चर्चा शुरू हुई, पाठकों का ध्यान भी इस खबर की गहराई और असर की ओर गया।
प्रेस कांफ्रेंस की विशेष बातें
- प्रेस कॉन्फ्रेंस दिल्ली के एक प्रतिष्ठित स्थान पर आयोजित की गई थी।
- उपस्थित पत्रकारों में एक भी महिला नहीं थी, जिससे कई लोग स्तब्ध रह गए।
- आयोजन में अफगान मंत्री ने द्विपक्षीय मुद्दों पर खुलकर बात की किन्तु मीडिया चयन प्रक्रिया पर चुप्पी रही।
- प्रश्न पूछने का अवसर सिर्फ पुरुष प्रतिनिधियों को दिया गया, जिससे घटना को लेकर अनेक प्रतिक्रियाएँ आईं।
महिला पत्रकारों की गैरमौजूदगी: क्या है वजह?
यह सवाल सबसे पहले मीडिया के वरिष्ठ प्रतिनिधियों ने उठाया कि आखिरकार महिला पत्रकारों को क्यों बाहर रखा गया। कन्वेनर की ओर से स्पष्ट किया गया कि आमंत्रण सूची में सिर्फ पुरुष नाम शामिल थे। कई विशेषज्ञों का मानना है कि तालिबान की कथित नीति ही इसका मुख्य कारण रही, क्योंकि अफगानिस्तान में वर्तमान शासकों की महिला अधिकारों को लेकर छवि हमेशा विवाद में रही है। ऐसे में भारत में भी तालिबान के दृष्टिकोण की छाप दिखना स्वाभाविक है।
Afghan Foreign Minister of Taliban Amir Khan Muttaqi addressing press conference in New Delhi at Afghanistan Embassy. Sadly not a single female journalist was allowed in the presser. I raised the issue with the security staff at the Embassy Gate but they did not listen. pic.twitter.com/mu1sCWiIYl
— Aditya Raj Kaul (@AdityaRajKaul) October 10, 2025
सरकार की प्रतिक्रिया और स्पष्टीकरण
इस मामले में देश की सरकार ने अपना आधिकारिक बयान जारी कर स्पष्ट किया कि आयोजन उसकी देखरेख में नहीं था और उन्होंने किसी महिला को बाहर करने का सुझाव नहीं दिया था। विदेश मंत्रालय ने प्रेस कांफ्रेंस के चयन संबंधी फैसले को आयोजनकर्ताओं के पाले में डाल दिया। सरकार ने संविधान और लोकतांत्रिक मूल्यों की पुनर्पुष्टि करते हुए कहा कि महिला पत्रकारों को दूर रखना उनकी नीति के खिलाफ है।
विपक्ष और मीडिया हलकों में प्रतिक्रिया
घटना के तुरंत बाद विपक्षी नेताओं ने तीव्र प्रतिक्रिया दी। कई वरिष्ठ नेताओं ने इसे लोकतंत्र और समानता के सिद्धांतों के विरुद्ध बताया। कुछ नेताओं ने पूछा कि क्या भारत जैसे देश में भी अब महिला अधिकारों को सीमित किया जाएगा। सोशल मीडिया पर भी इस फैसले की खूब चर्चा हुई, कई यूजर्स ने आलोचना की कि पुरुष पत्रकारों को खड़े होकर विरोध जताना चाहिए था। संपादकों और पत्रकारों ने अपने विचार साझा करते हुए कहा कि इसका सीधा असर मीडिया की स्वतंत्रता और निष्पक्षता पर पड़ता है।
तालिबान की महिला नीति और अंतरराष्ट्रीय प्रभाव
यह घटना उस समय आई जब अफगानिस्तान के तालिबान शासक पहले ही कई बार महिलाओं की शिक्षा, रोजगार और सार्वजनिक जीवन में भागीदारी को सीमित कर चुके हैं। प्रेस कॉन्फ्रेंस जैसे अंतरराष्ट्रीय कार्यक्रम में भी यही प्रतिबिंब साफ नजर आया। मानवाधिकार विशेषज्ञों और विदेशी संस्थाओं ने इस घटना की आलोचना करते हुए कहा कि ऐसे फैसले महिलाओं के अस्तित्व को चुनौती देते हैं। संयुक्त राष्ट्र समेत अनेक संस्थाओं ने अफगान महिलाओं के अधिकारों की वकालत फिर दोहराई।
भारत-अफगानिस्तान द्विपक्षीय संवाद और संदर्भ
हालांकि महिला पत्रकारों की अनुपस्थिति इस प्रेस कांफ्रेंस का प्रमुख विवाद रही, लेकिन इस द्विपक्षीय वार्ता में कई अन्य महत्वपूर्ण मुद्दे भी सामने आए। सुरक्षा सहयोग, ट्रेड, मानवीय सहायता, और शरणार्थियों की स्थिति जैसे विषयों पर भी बातचीत हुई। भारत और अफगानिस्तान दोनों पक्षों ने अपने रिश्तों को मजबूत बनाने का संकल्प जताया। भारत की विदेश नीति अक्सर जटिल वैश्विक मुद्दों पर संतुलन बनाने की कोशिश करती है, जैसे कि हाल ही में इजराइल-फिलिस्तीन संघर्ष पर दो-राष्ट्र समाधान को लेकर हुई चर्चाएँ। इस विषय पर विस्तार से जानने के लिए आप हमारे विशेष लेख Modi Starmer दो-राज्य समाधान: इजराइल-फिलिस्तीन संघर्ष पढ़ सकते हैं।
पाठकों के लिए खुला मंच
इस घटना के बाद कई सवाल उठे – क्या मीडिया में लैंगिक भेदभाव की चुनौती अभी भी मौजूद है? क्या लोकतंत्र में महिलाओं की भागीदारी को रोकना सही है? तालिबान से संवाद करते समय भारत को किस प्रकार से अपने मूल्यों और अंतरराष्ट्रीय मानकों का ध्यान रखना चाहिए? पाठकों को टिप्पणी और विचार साझा करने के लिए प्रेरित किया जाता है, ताकि सामाजिक सरोकार उठाया जा सके।
निष्कर्ष
दिल्ली में मंत्री संवाद कार्यक्रम में महिला पत्रकारों की गैरमौजूदगी ने समाज को सोचने पर मजबूर कर दिया है। यह सिर्फ एक प्रेस मीट की बात नहीं रही, बल्कि लैंगिक समानता, मीडिया की स्वतंत्रता और अंतरराष्ट्रीय रिश्तों की नई परिभाषा बन गई है। यह महत्वपूर्ण है कि इस घटना से एक सकारात्मक संदेश निकाला जाए—हर मंच पर महिला अधिकारों को सम्मान और सुरक्षा देने की आवश्यकता है।