भारत के राज्यों की आर्थिक सेहत पर एक नई चिंता गहराती दिख रही है। बीते एक दशक में वेतन, पेंशन और ब्याज अदायगी पर खर्च करीब 2.5 गुना बढ़ गया है। यह रुझान बताता है कि राज्यों की कमाई का बड़ा हिस्सा अब विकास परियोजनाओं की बजाय नियमित भुगतानों में खप रहा है। आम नागरिक के लिए इसका मतलब है कि बुनियादी ढांचे और सामाजिक योजनाओं के लिए उपलब्ध धन में कमी आ सकती है।
आंकड़ों का इशारा: खर्च में भारी उछाल
पिछले दस वर्षों की वित्तीय समीक्षा बताती है कि 2014-15 की तुलना में 2023-24 तक राज्यों का कुल व्यय वेतन, पेंशन और ब्याज मदों में ढाई गुना तक पहुंच गया।
- वेतन भुगतान: लगातार नए पद और वेतन आयोग की सिफारिशों ने भार बढ़ाया।
- पेंशन: पुरानी पेंशन योजना को कुछ राज्यों द्वारा फिर से लागू करने से दबाव और गहराया।
- ब्याज अदायगी: उधारी बढ़ने से राज्य उच्च ब्याज दरों पर ऋण चुका रहे हैं।
मुख्य बिंदु: आय की वृद्धि दर खर्च की रफ्तार का साथ नहीं दे पा रही, जिससे राजकोषीय संतुलन बिगड़ रहा है।
क्यों बढ़ा यह बोझ
- कर्मचारी संख्या में इजाफा: शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा सेवाओं में नई नियुक्तियां।
- वेतन आयोग प्रभाव: समय-समय पर वेतन पुनरीक्षण से निश्चित खर्च बढ़ा।
- पेंशन प्रणाली: कई राज्यों का पुरानी पेंशन स्कीम की ओर लौटना।
- उधारी और ब्याज: विकास योजनाओं के लिए लिए गए कर्ज का ब्याज लगातार बढ़ रहा है।
हाइलाइट: यदि यही रफ्तार रही तो आने वाले वर्षों में विकास योजनाओं के लिए बचा बजट और सिमट सकता है।
A massive push has been undertaken to address infrastructure and logistics bottlenecks.
Capital investment has increased from 1.7% of GDP in FY2013-14 to 3.2% in FY2024-25, with effective capital expenditure at 4.1% of GDP.
Over the last 11 years, 88 airports have been… pic.twitter.com/nEtchYO98o
— All India Radio News (@airnewsalerts) September 17, 2025
राज्यों पर असर
कई राज्यों को अब स्वास्थ्य, शिक्षा और बुनियादी ढांचे के लिए बजट कम करना पड़ रहा है।
- कुछ राज्यों का राजकोषीय घाटा तय सीमा से ऊपर जा चुका है।
- परियोजनाओं की गति धीमी, नई योजनाओं पर रोक जैसी परिस्थितियां बन रही हैं।
महत्वपूर्ण बिंदु: वित्तीय दबाव का सीधा असर नागरिक सुविधाओं और कल्याणकारी कार्यक्रमों पर पड़ता है।
संभावित समाधान
विशेषज्ञों का सुझाव है कि राज्यों को आय के नए स्रोत खोजने और खर्च पर नियंत्रण की नीतियां अपनानी होंगी।
- कर संग्रह व्यवस्था मजबूत करना
- गैर-जरूरी सब्सिडी में कटौती
- पेंशन सुधार को लागू करना
- पूंजीगत निवेश को प्राथमिकता देना
केंद्र-राज्य समन्वय
केंद्र सरकार द्वारा वित्तीय अनुशासन की रूपरेखा और वित्त आयोग की सिफारिशें राज्यों को दिशा दे सकती हैं। दीर्घकालिक योजना और डिजिटल टैक्स प्रशासन जैसे कदम राजस्व बढ़ाने में सहायक हो सकते हैं।
हाइलाइट: सिर्फ उधारी पर निर्भर रहना दीर्घकाल में राज्य वित्त के लिए जोखिमपूर्ण है।
नागरिकों पर प्रभाव
आम जनता पर इसका असर अप्रत्यक्ष रूप से दिखाई देगा।
- कर बढ़ने या नई सेवाओं पर शुल्क बढ़ सकता है।
- विकास कार्यों में देरी से रोज़मर्रा की सुविधाओं की गुणवत्ता प्रभावित हो सकती है।
पाठकों से सवाल
राज्यों की वित्तीय सेहत का सीधा संबंध जनता के जीवन स्तर से है।
प्रश्न: क्या राज्य सरकारों को अल्पकालिक लोकलुभावन योजनाओं की बजाय दीर्घकालिक वित्तीय अनुशासन को प्राथमिकता नहीं देनी चाहिए?
आपकी राय हमें कमेंट में ज़रूर बताएं।
वित्तीय प्रबंधन और प्रशासनिक फेरबदल की बात करते हुए आप यह वाक्य जोड़ सकते हैं:
“प्रशासनिक ढांचे में बदलाव भी वित्तीय प्रबंधन को प्रभावित करता है। हाल ही में हुए उत्तर प्रदेश आईएएस तबादले इस बात का उदाहरण हैं कि नीतिगत निर्णय कितनी तेजी से असर डाल सकते हैं।”
यह लिंक स्वाभाविक रूप से लेख के मध्य भाग—“केंद्र-राज्य समन्वय” या “संभावित समाधान” खंड में सहजता से डाला जा सकता है।