योगी आदित्यनाथ की बायोपिक और विवाद की आहट
हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में बायोपिक का चलन लगातार बढ़ रहा है। राजनीतिक और सामाजिक व्यक्तित्वों पर आधारित फिल्मों को लेकर हमेशा उत्सुकता बनी रहती है। इन्हीं चर्चाओं के बीच हाल ही में “अजय: द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ अ योगी” नामक बायोपिक सुर्खियों में आई। यह फिल्म उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के जीवन पर आधारित बताई जा रही है।
फिल्म की घोषणा होते ही इस पर बहस शुरू हो गई थी। समर्थक इसे प्रेरणादायक मान रहे थे, तो वहीं आलोचकों का कहना था कि ऐसी फिल्मों में निष्पक्षता बनाए रखना सबसे बड़ी चुनौती होती है।
परेश रावल का नजरिया: क्यों मुश्किल है ऐसी फिल्में बनाना
दिग्गज अभिनेता परेश रावल, जो लंबे समय से अपने दमदार अभिनय और बेबाक राय के लिए जाने जाते हैं, ने इस बायोपिक को लेकर अपनी प्रतिक्रिया दी। उन्होंने साफ कहा कि भारत में आज किसी भी तरह की फिल्म बनाना आसान नहीं है, खासकर तब जब वह राजनीतिक या संवेदनशील विषय से जुड़ी हो।
परेश रावल का मानना है कि फिल्मकारों को न केवल दर्शकों की उम्मीदों का ख्याल रखना पड़ता है बल्कि सेंसर बोर्ड की सख्त नीतियों और राजनीतिक दबावों से भी जूझना पड़ता है।
Star Talk
I have played the role of Yogi Adityanath’s guruji in this film. I did not find a lot of difficulty playing this role as an actor. Playing Sardar Patel’s role was difficult…: Actor @SirPareshRawal in conversation with @HeenaGambhir talks about his film ‘Ajey: The… pic.twitter.com/jzEVxDKQ9G
— TIMES NOW (@TimesNow) September 14, 2025
सेंसर बोर्ड का “सावधान” रवैया
फिल्म के संदर्भ में परेश रावल ने सेंसर बोर्ड (CBFC) की भूमिका पर भी चर्चा की। उन्होंने कहा कि सेंसर बोर्ड किसी भी राजनीतिक या विवादास्पद किरदार को लेकर हमेशा सतर्क रहता है। उनका तर्क था कि जब कोई फिल्म किसी बड़े नेता, समाज सुधारक या धार्मिक व्यक्तित्व पर बनती है तो सेंसर बोर्ड की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है।
उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि कई बार फिल्मकारों को किरदार की गहराई दिखाने के लिए रचनात्मक आज़ादी चाहिए होती है, लेकिन सेंसर बोर्ड इस पर अंकुश लगा देता है। यही वजह है कि ऐसी फिल्मों को बनाना और रिलीज़ करना हमेशा एक कठिन काम माना जाता है।
भारतीय सिनेमा में बायोपिक का दौर
पिछले कुछ सालों में बॉलीवुड और क्षेत्रीय सिनेमा में बायोपिक का क्रेज बढ़ा है। चाहे वह स्पोर्ट्स पर्सनैलिटी हों या राजनीतिक नेता, दर्शक इन कहानियों में गहरी रुचि दिखा रहे हैं।
- “एम.एस. धोनी: द अनटोल्ड स्टोरी” ने खेल जगत की झलक दिखाई।
- “संजू” ने एक विवादित अभिनेता की जिंदगी सामने रखी।
- वहीं “पीएम नरेंद्र मोदी” फिल्म ने राजनीति और सिनेमा के मेल को नया आयाम दिया।
अब जब योगी आदित्यनाथ की बायोपिक की चर्चा है, तो इससे लोगों की जिज्ञासा और बढ़ गई है।
फिल्मकारों की चुनौतियाँ
परेश रावल ने यह भी कहा कि एक बायोपिक बनाना सिर्फ कहानी कहने का काम नहीं होता, बल्कि यह जिम्मेदारी भी होती है कि किरदार को न्याय मिले।
- स्क्रिप्ट लिखते समय संतुलन बनाए रखना
- राजनीतिक दबाव और आलोचना का सामना करना
- सेंसरशिप की बाधाएँ
- दर्शकों की संवेदनाओं का ख्याल रखना
ये सभी बातें मिलकर फिल्मकारों के लिए मुश्किलें खड़ी करती हैं।
Actor Paresh Rawal ने साझा किया UP CM Yogi Adityanath पर बन रही Film में काम करने का अनुभव #PareshRawal #YogiAdityanath #YogiBiopic #Bollywood #UPCm #FilmExperience #ActorLife #IndianCinema #Biopic #YogiAdityanathFilm #shorts pic.twitter.com/SUC81xFUGE
— Patrika Hindi News (@PatrikaNews) September 11, 2025
दर्शकों की उम्मीदें
जब भी किसी बड़े नेता या लोकप्रिय व्यक्तित्व की बायोपिक बनती है, तो दर्शकों की उम्मीदें दोगुनी हो जाती हैं। योगी आदित्यनाथ देश के सबसे चर्चित मुख्यमंत्रियों में से एक हैं, जिनकी लोकप्रियता युवाओं से लेकर ग्रामीण जनता तक फैली हुई है।
ऐसे में दर्शकों को उम्मीद है कि यह फिल्म सिर्फ एक नेता का चित्रण नहीं होगी बल्कि इसमें उनकी वैचारिक यात्रा और संघर्षों को भी ईमानदारी से दिखाया जाएगा।
पाठक अक्सर ये देखना चाहते हैं कि कलाकार और सार्वजनिक हस्ती अपनी निजी ज़िंदगी और सार्वजनिक इमेज में कितने संतुलित हैं। इस तरह की तुलना और चर्चाएँ सिर्फ फ़िल्मों तक सीमित नहीं रहतीं, बल्कि सोशल मीडिया और सार्वजनिक कार्यक्रमों में भी गूंजती हैं।
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भविष्य की संभावनाएँ
भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में राजनीतिक बायोपिक्स का दायरा बहुत बड़ा है। अगर सेंसर बोर्ड, फिल्मकार और दर्शक तीनों के बीच संतुलन कायम रहे तो आने वाले समय में इस तरह की और फिल्में बन सकती हैं।
परेश रावल का मानना है कि कला और राजनीति का रिश्ता जटिल जरूर है, लेकिन अगर कहानी ईमानदारी से कही जाए तो यह समाज के लिए प्रेरणा बन सकती है।
निष्कर्ष
परेश रावल के बयान ने यह साफ कर दिया है कि बायोपिक सिर्फ फिल्म नहीं, बल्कि एक जिम्मेदारी है। सेंसर बोर्ड का सतर्क रवैया, राजनीतिक दबाव और दर्शकों की उम्मीदें – इन सबके बीच फिल्मकारों को संतुलन बनाना आसान नहीं होता।
योगी आदित्यनाथ की बायोपिक को लेकर चर्चाएँ तो जारी रहेंगी, लेकिन परेश रावल की राय ने इस बहस को एक नया आयाम दिया है।