महाराष्ट्र के मालेगांव में 2006 और 2008 में हुए बम धमाकों ने देश को झकझोर दिया था। इनमें से 2008 का धमाका खासतौर पर विवादों और राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप का केंद्र बना रहा। इस धमाके में 6 लोगों की जान गई और दर्जनों घायल हुए। शुरुआती जांच महाराष्ट्र ATS और बाद में NIA के हाथों में गई।
आरोपियों में साध्वी प्रज्ञा ठाकुर, लेफ्टिनेंट कर्नल श्रीकांत पुरोहित सहित कुल 7 लोग शामिल थे। इन सभी पर आतंकी साजिश, हत्या और यूएपीए जैसे गंभीर आरोप लगे थे। अदालत में मामला 17 वर्षों तक चला और गवाही, सबूत, और तफ्तीश पर कई बार सवाल खड़े हुए।
इस मामले की गूंज सिर्फ अदालत तक सीमित नहीं रही, बल्कि राजनीतिक गलियारों और मीडिया में भी लगातार चर्चा में बनी रही। फैसले से पहले ही इस केस को लेकर लोगों की निगाहें टिकी थीं। इस फैसले का लंबे समय से इंतजार किया जा रहा था और अब यह ऐतिहासिक निर्णय आया है।
कोर्ट का फैसला: सभी आरोपियों को बरी किया गया
विशेष एनआईए अदालत ने 28 जुलाई 2025 को 2008 मालेगांव ब्लास्ट केस में बड़ा फैसला सुनाते हुए सभी 7 आरोपियों को बरी कर दिया। कोर्ट ने कहा कि अभियोजन पक्ष यह साबित नहीं कर सका कि यह ब्लास्ट किसी आतंकी साजिश का हिस्सा था या कि आरोपियों की इसमें कोई भूमिका थी।
कोर्ट ने अपने फैसले में कहा,
“इस केस में साजिश को साबित करने के लिए पर्याप्त सबूत नहीं पेश किए जा सके। जांच में कई विरोधाभास और असंगतियां सामने आई हैं।”
अदालत ने यह भी स्वीकार किया कि मामले में “ठोस तकनीकी सबूतों की कमी” रही, जिससे अभियोजन कमजोर पड़ा। NIA की ओर से पेश किए गए गवाह भी अपने बयान से मुकर गए या फिर उनमें स्थिरता नहीं थी।
यह फैसला भारतीय न्याय व्यवस्था के लिए एक अहम मोड़ साबित हो सकता है, जहां आतंकवाद जैसे गंभीर आरोपों पर फैसले में जांच एजेंसियों की भूमिका की गंभीर समीक्षा की गई। यह केस कई स्तरों पर मिसाल बन सकता है।
They tried everything, vilification, fake narratives, media trials.@INCIndia ecosystem left no stone unturned to frame Col Purohit & #SadhviPragya in the #malegaonblastcase.
Today, the court says:
*No proof Col Purohit made the bomb
*No proof Sadhvi Pragya owned the bike… pic.twitter.com/YapF6ExdFZ— Akshta Nilabh (@akshtanilabh) July 31, 2025
विस्फोटक की जगह को लेकर विरोधाभास
एक बड़ा सवाल जो अदालत में उठाया गया वह था—क्या विस्फोटक बाइक पर रखा गया था या किसी घर के भीतर? अभियोजन पक्ष की शुरुआती दलीलों में कहा गया कि बम मोटरसाइकिल में फिट किया गया था जो मालेगांव की भीड़भाड़ वाली सड़क पर खड़ी थी। वहीं कुछ गवाहों और पुलिस रिपोर्ट्स में यह दावा किया गया कि विस्फोटक किसी घर में रखा गया था।
कोर्ट ने इस विरोधाभास को गंभीरता से लिया। फैसले में साफ कहा गया कि,
“जांच एजेंसियों की रिपोर्ट्स में विस्फोटक की लोकेशन को लेकर स्पष्टता नहीं है। यह केस की नींव को कमजोर करता है।”
इस विरोधाभास ने संदेह पैदा किया कि क्या जांच निष्पक्ष और पेशेवर ढंग से की गई थी। कोर्ट ने माना कि जांचकर्ताओं ने किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले पर्याप्त क्रॉस-वेरिफिकेशन नहीं किया।
इस तरह की विसंगतियां न केवल जांच की गुणवत्ता पर सवाल उठाती हैं, बल्कि आरोपी को दोषमुक्त करने का आधार भी बनती हैं।
उत्पीड़न और दबाव के आरोप: चौंकाने वाले खुलासे
मामले में सबसे चौंकाने वाली बात तब सामने आई जब एक गवाह ने अदालत में कहा कि उससे जबरन योगी आदित्यनाथ का नाम लेने को कहा गया था। यह बयान ना सिर्फ केस की दिशा को प्रभावित करता है, बल्कि जांच की निष्पक्षता पर भी प्रश्नचिन्ह लगाता है।
अदालत में पेश मेडिकल रिपोर्ट्स में भी संकेत मिले कि कुछ आरोपियों के साथ हिरासत में शारीरिक प्रताड़ना की गई थी। यह मुद्दा कोर्ट के लिए अत्यंत गंभीर था।
कोर्ट ने साफ कहा,
“टॉर्चर के आरोपों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यह भारतीय संविधान के मूल अधिकारों का सीधा उल्लंघन है।”
ऐसे मामलों में टॉर्चर न केवल मानवीय अधिकारों का हनन है, बल्कि कानूनी प्रक्रिया की निष्पक्षता को भी खतरे में डालता है।
इस खुलासे से यह सवाल उठता है कि अगर किसी राजनीतिक दबाव या उद्देश्य के तहत किसी को झूठे केस में फंसाया गया, तो इसका जिम्मेदार कौन होगा?
They tried everything, vilification, fake narratives, media trials.
Congress ecosystem left no stone unturned to frame Col Purohit & #SadhviPragya in the #malegaonblastcase.
Today, the court says:
*No proof Col Purohit made the bomb
*No proof Sadhvi Pragya owned the bike… pic.twitter.com/V8EanjPHCU— DrVinushaReddy (@vinushareddyb) July 31, 2025
राजनीतिक साजिश की थ्योरी: न्यायालय की टिप्पणी
मालेगांव केस को लेकर एक समय ऐसी थ्योरी भी सामने आई थी कि यह एक राजनीतिक साजिश थी, जिसमें RSS प्रमुख मोहन भागवत को फंसाने की योजना थी। इस बात का दावा एक पूर्व अभियोजक ने किया था, जिसे बाद में जांच एजेंसियों ने भी खारिज किया।
कोर्ट ने इस मुद्दे पर कोई सीधा टिप्पणी नहीं की, लेकिन कहा कि,
“जांच राजनीतिक दिशा में भटकी हुई प्रतीत होती है और इसका कोई साक्ष्य नहीं मिला जो इसे सिद्ध कर सके।”
इस तरह की थ्योरी से जांच की गंभीरता और पारदर्शिता पर शक पैदा होता है। कोर्ट का यह कहना कि “गवाहों पर दबाव डालने और राजनीतिक नामों को घसीटने की कोशिश की गई”, बेहद चिंताजनक है।
इससे यह भी स्पष्ट होता है कि ऐसे मामलों में राजनीतिक हस्तक्षेप जांच को भटकाने का कारण बन सकता है।
जांच एजेंसियों पर कोर्ट की सख्त टिप्पणी
अदालत ने अपने फैसले में जांच एजेंसियों जैसे कि NIA, ATS और महाराष्ट्र पुलिस पर सख्त टिप्पणियां कीं। विशेष रूप से यह कहा गया कि,
“जांच तथ्यों से परे जाकर भ्रम फैलाने वाली रही।”
ऐसे मामलों में जहां आरोपी सालों से जेल में हैं, जांच में चूक को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। अदालत ने यहां तक कहा कि एजेंसियों ने “प्राथमिक जांच के बाद ही निष्कर्ष निकाल लिए, जो गलत साबित हुए।”
जांच प्रक्रिया की पारदर्शिता और ईमानदारी पर सवाल उठना लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरा है। ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि जांच एजेंसियों की जवाबदेही तय हो।
फैसले के बाद की प्रतिक्रियाएं
इस ऐतिहासिक फैसले के बाद विभिन्न राजनीतिक और सामाजिक संगठनों की प्रतिक्रियाएं सामने आईं।
कई लोगों ने इसे न्याय का पल बताया, वहीं कुछ ने इसे जांच एजेंसियों की विफलता करार दिया।
पीड़ितों के परिवारों ने नाराजगी जताई कि दोषियों को सजा नहीं मिली। वहीं आरोपी पक्ष के समर्थकों ने इसे “देर से मिला न्याय” बताया।
सोशल मीडिया पर इस मुद्दे पर जमकर बहस हुई। कई यूज़र्स ने लिखा कि,
“17 साल की लंबी कानूनी लड़ाई के बाद अब जाकर इंसाफ मिला है।”
हालांकि, किसी भी प्रतिक्रिया में कोई उग्र या हिंसक बयान नहीं देखा गया, जिससे यह साफ है कि लोग इस मुद्दे को गंभीरता से समझ रहे हैं।
न्याय व्यवस्था पर उठे नए सवाल
मालेगांव ब्लास्ट केस का फैसला भारतीय न्याय व्यवस्था के लिए एक नया मील का पत्थर है। यह न केवल एक केस का निपटारा है, बल्कि जांच प्रक्रिया, मानवाधिकार और राजनीतिक हस्तक्षेप जैसे गंभीर विषयों पर सोचने का मौका देता है।
इस केस ने यह भी दिखा दिया कि जांच एजेंसियों की जवाबदेही तय करना कितना जरूरी है। अगर किसी व्यक्ति को सालों तक झूठे केस में जेल में रहना पड़े, तो ये सिस्टम की विफलता है।
न्यायालय ने एक मजबूत उदाहरण प्रस्तुत किया है कि कैसे साक्ष्य आधारित न्याय होना चाहिए। लेकिन यह भी स्पष्ट है कि सुधार की बहुत ज़रूरत है।