संगरूर ज़िले के बेचिराग गांव में दलित समुदाय के लोगों ने ज़मीन के अधिकार को लेकर जो शांतिपूर्ण आंदोलन शुरू किया है, वह अब पूरे पंजाब में चर्चा का विषय बन गया है। यह सिर्फ एक ज़मीन के टुकड़े की लड़ाई नहीं, बल्कि आत्मसम्मान, पहचान और सामाजिक न्याय की मांग है।
बेचिराग गांव के लोग वर्षों से अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठा रहे हैं। लेकिन इस बार का आंदोलन न सिर्फ अधिक संगठित है, बल्कि इसमें एक भावनात्मक जुड़ाव भी साफ दिखाई देता है। यह लोगों की ज़िंदगी से जुड़ा मुद्दा है, और यही वजह है कि यह प्रदर्शन आम विरोध से कहीं ज़्यादा बन गया है।
ज़मीन का विवाद: 927 एकड़ की कहानी
दलित समुदाय का दावा है कि यह 927 एकड़ भूमि पहले जिंद रियासत की थी और अब यह राज्य सरकार की जिम्मेदारी है कि वह इसे भूमिहीन दलितों को सौंपे। लंबे समय से यह भूमि बेकार पड़ी है, और इसमें खेती भी नहीं हो रही।
प्रदर्शनकारियों का कहना है कि अगर यह ज़मीन उन्हें दी जाती है, तो वे न केवल अपनी आजीविका चला पाएंगे, बल्कि आत्मनिर्भर भी बन सकेंगे। इस ज़मीन को ‘बेगमपुरा’ नाम देने का प्रस्ताव भी दिया गया है, जो संत रैदास के आदर्शों पर आधारित एक समतामूलक समाज का प्रतीक माना जाता है।
आंदोलन के तरीके: सांकेतिक विरोध की नई परिभाषा
इस आंदोलन की सबसे खास बात यह रही कि प्रदर्शनकारियों ने जेल परिसर के सामने ‘चिराग’ जलाकर सांकेतिक विरोध जताया। महिलाओं, बुजुर्गों और युवाओं ने एकजुट होकर इस विरोध को शांति से आगे बढ़ाया।
‘चिराग जलाना’ केवल प्रतीकात्मक नहीं था, बल्कि यह एक उम्मीद और विश्वास का संकेत भी था। यह संदेश था कि न्याय की लौ अभी बुझी नहीं है।
Feeling no govt in #Punjab implemented land reforms act 1972, Dalit organisation comes forward to take forcible possession of 927 acres from erstwhile Jind state, police takes many into custody, demand of Dalits for promised 5 Marla plots hanging fire for long pic.twitter.com/WvlPhV0Jxi
— Neel Kamal (@NeelkamalTOI) May 23, 2025
प्रशासनिक प्रतिक्रिया: संवाद अधूरा, समाधान नहीं
प्रशासन ने प्रदर्शनकारियों से बात जरूर की, लेकिन कोई ठोस समाधान सामने नहीं आया। राजस्व विभाग का कहना है कि ज़मीन सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज नहीं है, जबकि दलित संगठनों का आरोप है कि प्रशासन जानबूझकर इस मामले को लटकाए हुए है।
कुछ स्थानीय अधिकारियों ने आश्वासन दिए, लेकिन जमीन पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। यही कारण है कि समुदाय का विश्वास अब सरकारी संस्थानों से उठता दिख रहा है।
सामाजिक समर्थन: गांव से राज्य तक
यह आंदोलन अब सिर्फ बेचिराग गांव तक सीमित नहीं रहा। यह ठीक वैसा ही प्रतीक बनता जा रहा है, जैसा चप्पड़-चिरी की ऐतिहासिक सड़क के संरक्षण की मांग का मामला है, जो आज अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है। उस संदर्भ को आप यहाँ विस्तार से पढ़ सकते हैं।
‘बेगमपुरा’ अब एक गांव नहीं, एक सोच बन चुकी है। एक ऐसा सपना जिसमें हर व्यक्ति को बराबरी का हक मिले, जहां कोई जातिगत भेदभाव न हो। पंजाब के अन्य हिस्सों में भी इस सोच को लेकर उत्साह देखा जा रहा है।
ऐतिहासिक संदर्भ: पंजाब में दलित ज़मीनी संघर्ष
पंजाब में दलित समुदाय ने कई बार ज़मीन के अधिकारों के लिए संघर्ष किया है। चाहे वह फरीदकोट हो या मलेरकोटला, इस तरह के आंदोलन अतीत में भी हुए हैं। लेकिन हर बार दलितों को न्याय मिलने में देरी हुई है।
बेचिराग का आंदोलन इन्हीं प्रयासों की एक नई कड़ी है, जिसमें नई पीढ़ी की भागीदारी इसे और भी सशक्त बना रही है।
अगला कदम: आंदोलन की रणनीति
दलित कार्यकर्ताओं ने साफ कर दिया है कि जेल के बाहर चिराग जलाना सिर्फ शुरुआत थी। अब यह आंदोलन और ज़िलों तक फैलेगा। सोशल मीडिया के ज़रिए लोग एकजुट हो रहे हैं और अगली रणनीतियों पर काम कर रहे हैं।
लुधियाना, पटियाला, बरनाला जैसे शहरों में भी प्रदर्शन की योजना बनाई जा रही है। आंदोलन की अगुवाई कर रहे संगठनों का कहना है कि जब तक मांगे नहीं मानी जातीं, तब तक यह विरोध जारी रहेगा।
क्या दलितों को मिलेगा न्याय?
आज जब पूरा देश समानता और समावेश की बात कर रहा है, तब संगरूर के बेचिराग गांव में दलितों का यह शांतिपूर्ण संघर्ष एक आईना है। यह सिर्फ ज़मीन नहीं, जीने के अधिकार की लड़ाई है।
सवाल यह है कि क्या सरकार और प्रशासन इस आवाज़ को सुनेगा? क्या ‘बेगमपुरा’ जैसा समाज हकीकत बन सकेगा, या यह सपना अधूरा रह जाएगा?
आपका क्या सोचना है? क्या दलित समुदाय को उनकी ज़मीन का हक़ मिलना चाहिए? नीचे कमेंट कर अपनी राय ज़रूर साझा करें।