पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच दुबारा वार्ता शुरू करने का फैसला हाल-ही में सामने आया है, जो कि क्षेत्रीय सुरक्षा और राजनीतिक स्थिरता की दृष्टि से महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है। वार्ताकार दोनों देशों ने İstanbul में मिलने का निर्णय लिया है, जहाँ पिछले कई महीनों से ठहराव के बाद संवाद को पुनर्जीवित करने की दिशा में पहल उठाई गई है। इस वार्ता का मकसद सिर्फ द्विपक्षीय तनाव कम करना नहीं है, बल्कि सीमापार आतंकवाद, शरणार्थी समस्या, आर्थिक साझेदारी और क्षेत्रीय सुरक्षा संरचना को भी अग्रसर करना है।
दोनों पक्षों का मानना है कि संवाद को पुनः चलाना समय की जरूरत है: इस पहल के चलते उम्मीद जताई जा रही है कि न सिर्फ देशों के बीच विश्वास का माहौल बनेगा बल्कि आम नागरिकों को भी प्रत्यक्ष लाभ मिलेगा।
संवाद ठहराव तक कैसे पहुँचा?
पिछले कुछ सालों में पाकिस्तान-अफगानिस्तान संबंधों में कई बार बढ़ती तनावभरी स्थिति देखने को मिली। अफगान भूमि से आतंकवादी हमलों की शिकायतों ने पाकिस्तान को मजबूर किया था कि वह जवाबी कार्रवाई में सक्रिय हो। वहीं अफगानिस्तान ने पाकिस्तान की सीमा के अन्दर सुरक्षित पनाह-स्थलों का आरोप लगाया। इस द्विपक्षीय संघर्ष में विश्वास की कमी, सैनिक कार्रवाई, राजनीतिक अस्थिरता और अंतरराष्ट्रीय दबाव सभी ने मिलकर संवाद को ठहराव की ओर धकेला।
उदाहरण के लिए, पिछले दौर की बैठकें अकसर एजेंडा-अस्मर्था और पूछ-ताछ-विवाद में उलझ जाती थीं। पाकिस्तान चाहता था कि सीमा क्षेत्र में आतंकवाद-रोधी कार्रवाई को अफगानिस्तान समर्थन दे, जबकि अफगानिस्तान का कहना था कि पाकिस्तान अशांतियों को पनाह दे रहा है — दोनों पक्षों के बयान अक्सर सार्वजनिक रूप से आ जाते थे। इस तरह की खुली बयानबाजी ने वार्ता को निष्प्रभावी बना दिया। इसी ठहराव के बीच नेपाल, भारत और मध्य एशियाई देशों से भी दबाव बना कि स्थिति नियंत्रण से बाहर न जाए।
इस पृष्ठभूमि में अब इस्तांबुल में पुनर्वार्ता का मंच तैयार होना इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि दोनों देशों को एहसास हो चुका है कि संवाद के बगैर आगे बढ़ना मुश्किल है – न सिर्फ मुद्दों के समाधान में, बल्कि आर्थिक विकास, व्यापार विस्तार और मानव संसाधन-विकास में भी।
इस्तांबुल में फिर से बैठने की तैयारियाँ
इस्तांबुल को वार्ता स्थल के रूप में चुना जाना किसी संयोग नहीं है — यह शहर अपने मध्यस्थतापरिचित इतिहास, भूतपूर्व ओटोमन लोकतंत्रियों का केंद्र और एशिया-यूरोप के संगम के कारण आदर्श माना जा रहा है। दोनों पक्षों में यह सहमति बनी कि तटस्थ माहौल में संवाद होने से भरोसे का माहौल बनेगा। वार्ता में सम्मिलित होंगे पाकिस्तानी और अफगानी विदेश मंत्रालय के प्रमुख, सुरक्षा सलाहकार, सीमा प्रबंधन अधिकारी, और आर्थिक सहयोग विभाग के प्रतिनिधि।
मंच की शुरुआत विद्यमान मुद्दों की पूर्व-सूची द्वारा होगी, जिसमें शामिल होंगे: सीमा पार आतंकवादी गतिविधि, शरणार्थी प्रवाह, आर्थिक निवेश और मानव-संपर्क। इस बैठक के लिए नियत तारीख, प्रतीतमंत्रियों के स्तर, और संयुक्त कमिटी-सेक्शन तय हो चुका है। दोनों दलों ने यह भी माना है कि वार्ता के दौरान मीडिया नियंत्रण, निजी वार्ता सत्र और पर्याप्त समय-फ्रेम महत्वपूर्ण होंगे ताकि घोषणाओं से पहले दोनों पक्ष स्पष्टता पा सकें।
इस दिशा में एक प्री-मीटिंग भी आयोजित की गई है, जिसमें अब तक के सुझाव एवं विषय सूची तय की गई है। यह भी तय हुआ है कि वार्ता का निष्कर्ष सार्वजनिक प्रेस बयान से नहीं बल्कि एक संयुक्त कॉमन न्यूरल रिपोर्ट के माध्यम से होगा, जिससे मीडिया में बिना आवश्यकता के संवेदनशील बातें नहीं फूटेंगी।
साथ ही यह तय हुआ है कि इस प्रक्रिया में तीसरे पक्ष की भूमिका सीमित होगी; सिर्फ मध्यस्थ के रूप में तुर्की काम करेगा ताकि दोनों पक्षों के बीच भरोसे का माहौल बना रहे।
BREAKING: Afghanistan’s strong message to Pakistan
Afghanistan’s interior minister Khalifa Sirajuddin Haqqani’s message to Pakistan on TTP
‘These are your own problems, Why are they being imposed on us?’pic.twitter.com/WXc4Jk6fk8
— Sidhant Sibal (@sidhant) October 30, 2025
प्रमुख एजेंडा-पॉइंट्स: क्या बात होगी?
वार्ता का केंद्रबिंदु निम्नलिखित महत्वपूर्ण विषय होंगे:
सीमा पार आतंकवाद एवं सुरक्षा
दोनों देशों के लिए सबसे बड़ी चुनौती है सीमापार सक्रिय आतंकवादी समूहों की समस्या। पाकिस्तान चाहता है कि अफगानिस्तान उन समूहों को सक्रिय रूप से नियंत्रित करे, जो पाकिस्तानी क्षेत्र में हमले करते हैं। वहीं अफगानिस्तान का कहना है कि उसे पर्याप्त जानकारी और नियंत्रण नहीं दिया जा रहा। इस समस्या को हल करने के लिए सूचना-साझेदारी, सशस्त्र गश्त-सहयोग, और सरहदी पोस्ट-सुरक्षा नेटवर्क स्थापित करना शामिल होगा।
शरणार्थी व आंतरिक विस्थापन
अफगानिस्तान से पाकिस्तान में प्रवासी एवं शरणार्थियों की संख्या बड़ी है। इन लोगों की स्थिति, पुनर्वास, और वापसी-प्रबंधन भी चर्चा का विषय होगा। पाकिस्तान की मांग है कि शरणार्थियों के सामाजिक-आर्थिक भार को कम करने के लिए अफगानिस्तान सक्रिय भूमिका निभाए।
आर्थिक सहयोग एवं व्यापार विस्तार
वार्ता में विशेष आर्थिक क्षेत्र, ट्रांजिट व परिवहन मार्ग, और पुनर्निर्माण व निवेश पर भी बात होगी। दोनों देशों ने माना है कि संवाद का अभाव उनके व्यापार को प्रभावित कर रहा है और निवेशक दबाव में हैं।
सांस्कृतिक एवं मानव-संपर्क
विश्वसनीयता बनाने के लिए मानव-संपर्क (लोग-ले लोग संवाद), छात्र-वीनिमय कार्यक्रम, मीडिया सहयोग और सांस्कृतिक आदान-प्रदान जैसे पहलुओं पर भी ध्यान दिया जाएगा।
विश्व एवं क्षेत्रीय भागीदार
इस बार यह सुनिश्चित किया गया है कि वार्ता में बड़ी शक्तियों या बाहरी हस्तक्षेप का प्रभाव कम हो। साथ ही यह विषय भी चर्चा में होगा कि कैसे इस संवाद के सहारे क्षेत्रीय सुरक्षा संस्था-उदाहरण-रिपोर्टिंग मैकेनिज्म तैयार किया जाए।
चुनौतियाँ व संभावित अड़चनें
जहाँ यह पहल स्वागत योग्य है, वहीं इसके सामने कई चुनौतियाँ भी हैं:
भरोसे की कमी
दोनों देश वर्षों से एक-दूसरे पर आरोप लगाते रहे हैं, जो भरोसे का गंभीर संकट उत्पन्न करता है। कोई भी छोटी सा झटका (जैसे हमले या संदिग्ध गतिविधि) वार्ता को तुरंत पटरी से उतार सकता है।
आंतरिक राजनीति और शक्ति संतुलन
पाकिस्तान एवं अफगानिस्तान दोनों में आंतरिक राजनीतिक दल, सैन्य संस्थान और राष्ट्रीय विरोधी-सामाजिक समूह इस प्रक्रिया को विभिन्न रूप से देख सकते हैं। इसके कारण वार्ता के दौरान निर्णय लेना कठिन हो सकता है।
बाहरी देश-विरोधी समूहों का प्रभाव
क्षेत्र में तीसरी शक्तियाँ (जैसे बड़ें विदेश सहयोगी देश) इस संवाद को अपनी रणनीतिक रुचियों के हिसाब से प्रभावित कर सकती हैं। यह वार्ता के दिशा-निर्देश और परिणामों को बदल सकता है।
मीडिया तथा सार्वजनिक अपेक्षाएँ
जब जनता को उम्मीद होगी कि तुरंत कुछ बदल जाएगा, लेकिन वार्ता को समय चाहिए—तो असमय उम्मीदों के कारण निराशा पैदा हो सकती है। मीडिया में गलत निष्कर्ष और अफवाहें भी उत्पन्न हो सकती हैं।
कार्यान्वयन और निरंतरता
वार्ता करना आसान है, लेकिन निर्णयों को लागू करना और निरंतर रखना कठिन। सीमापार गश्त-सहयोग और आर्थिक परियोजनाओं जैसे मुद्दों में वर्ष-दर-वर्ष समन्वय आवश्यक होगा।
इससे क्या लाभ संभव हैं?
यदि यह वार्ता सफल होती है तो इसके अनेक लाभ सामने आ सकते हैं:
- क्षेत्रीय सुरक्षा मजबूत होगी: सीमापार आतंकवाद कम हो सकता है, जिससे दोनों देशों में शांतिपूर्ण माहौल बनेगा।
- आर्थिक दिशा में प्रगति संभव है: व्यापार वृद्धि, निवेश आकर्षित करना तथा परिवहन-मार्गों का विकास संभव होगा।
- मानव-वंशीय लाभ मिल सकते हैं: शरणार्थियों की स्थिति सुधरेगी, लोगों के बीच भरोसा बढ़ेगा तथा छात्र-वीनिमय से सामाजिक verbondenता बढ़ेगी।
- दक्षिण एशिया-स्तर पर सकारात्मक संकेत जाएंगे: यह दिखाएगा कि क्षेत्रीय मतभेद संवाद द्वारा हल हो सकते हैं, जिससे अन्य पड़ोसी देशों को भी प्रेरणा मिलेगी।
- राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय छवि सुधार सकती है: दोनों देशों के लिए संकेत होगा कि वे समस्या-समाधान-प्रमुख दृष्टिकोण अपनाने को तैयार हैं।
अगला कदम
अब देखने वाली बात है कि इस वार्ता का प्रारंभ कब होगा, और कितने दिन में दोनों पक्ष स्वीकृत दस्तावेज पर हस्ताक्षर करेंगे। आमतौर पर इस तरह की बैठकों में प्रारंभिक समझौते एक-दो सप्ताह में तैयार हो जाते हैं, लेकिन पूर्ण निष्कर्ष आने में महीने लग सकते हैं।
यह ध्यान देने योग्य है कि सफलता सिर्फ इस बैठक तक सीमित नहीं होगी, बल्कि इसके बाद कार्यान्वयन-चक्र, निरंतर संवाद-मिलन, तथा दोनों देशों की स्वयं-रुचि महत्वपूर्ण होगी। यदि यह मॉडल सफल हुआ, तो दक्षिण एशिया में इस तरह की पहल अन्य देशों द्वारा भी अपनाई जा सकती है।
अंततः, यह संवाद एक अवसर है — जहाँ शब्दों के बजाय कार्रवाइयाँ मायने रखती हैं। दोनों देशों को यह समझना होगा कि पारस्परिक हितों में आपस में काम करना ही दीर्घकालीन स्थिरता का मार्ग है।
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